Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 107
________________ जैन-धर्म अर्हन विभर्षि सायकानि धन्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निदं दयसे विश्वमम्वं न वा ओ जीयो रुद्रत्वदस्ति ।। (ऋग्वेद अ०२ सूक्त ३३ वर्ग १७) भावार्थ हे अर्हन् ! तुम वस्तु स्वरूप धर्मरूपी वारणों को, उपदेश रूपी धनुष का, तथा आत्म चतुष्टय रूप आभूषणों को, धारण किए हो । हे अर्हन् ! आप संसार के सब प्राणियों पर दया करते हो और हे कामादिक को जलाने वाले आपके समान कोई रुद्र नहीं है। निम्न लिखित मंत्रों में अर्हन्त या अर्हन शब्द का भी उल्लेख है इमंस्तोममहंतेजातवेदसेरथमिव संमहेमामनीषय । भद्वाहिनः प्रमतिरस्यसंसद्यग्नसरयेमारिषामावयंतव ॥ ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त ६४ अर्हन्तायेषदानवोनरोप्रसामिशवसः प्रमज्ञयज्ञियेम्योंदि वो अर्चामहद्भ। ऋग्वेद मंडल ५ सूक्त ५२-५ अर्हन्त या अर्हन् शब्दों के अतिरिक्त, जो कि "जिन" का ही पर्यायवाची है और जो जैनधर्म में मान्य पांच परमेष्ठियों में से प्रथम परमेष्ठी के लिए प्रयुक्त होता है, वेदों में जैनियों के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, ७ वें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ, २२ वें तीर्थकर अरिष्टनेमि के नामों का उल्लेख व उनकी स्तुति भी पाई जाती है । जैसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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