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जैन-धर्म
[ ७६ ] से नित्य (स्थिर ) है । वस्तु का स्वभाव अनेकान्तात्मक (अनेक धर्म या स्वभाव वाला) है। एक ही वस्तु में नित्य गुण व अनित्य पर्यायें अविरोध से रहती हैं तथा गुणों और अनन्त पर्यायों के समुदाय का नाम ही द्रव्य है । एक ही द्रव्य अपने सम्पूर्ण गुणों के साथ अनन्त पर्यायों (हालतों) को धारण करता रहता है और इसलिए कथंचित् नित्य व कथंचित् अनित्य हैगुण की दृष्टि से नित्य और पर्याय की दृष्टि से अनित्य ।
इस भांति जैन दर्शन अपने उदार दृष्टिकोण द्वारा वस्तु तत्व का निष्पक्ष और यथार्थ विवेचन करता और वस्तु को अनन्त गुण पर्यायात्मक समझता है तथा उनका निर्बाध कथन करते हुए मनुष्य के ज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाता हुआ उसकी ज्ञान पिपासा को शान्त करने का प्रयत्न करता है। यह प्रत्येक बुद्धिमान. स्वीकार करेगा कि अधूरी, संकुचित एवं पक्षपातपूर्ण दृष्टि द्वारा किया गया कोई भी ज्ञान पूर्णज्ञान या यथार्थज्ञान कहलाने का दावा नहीं कर सकता और न उस ज्ञान के द्वारा कोई अपने को पूर्णज्ञानी या सर्वज्ञ ही बना सकता, क्योंकि विश्व में विद्यमान अनन्त पदार्थ और उनके स्वभाव व कार्यक्रम स्पष्टतः विभिन्न और बहुसख्यक हैं, उन्हें एक ही . दृष्टिकोण के अन्तर्गत पूर्णतः ले आना अल्पज्ञ पुरुषों द्वारा असम्भव है, यह एक मोटी बात है। अतः विश्व के सम्पूर्ण दर्शनों ने अपने एक ही दृष्टिकोण द्वारा जहां वस्तु के सम्बन्ध में विचार कर अन्य दृष्टिकोणों के द्वारा प्रतीत होने वाले वस्तु के
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