Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 91
________________ जैन-धर्म [ ६ ] में, जो कि आत्मा के अनन्त आनन्द का उपभोग कर रहे हैं, और राग द्वेष करने से जन्म मरण रूप संसार में फँस कर घोर संकटों का सामना करना पड़ता है, इस बात को भली भांति जानते हैं, अकारण राग द्वेष पैदा हरगिज़ नहीं हो सकता । और न वे जान बूझ कर मूर्खों की भांति राग द्वेष कर सकते हैं । संसार में जो जीवों की सुख दुःखमय अवस्थाएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं वे केवल भ्रममात्र नहीं हैं; प्रत्युत् वे अवस्थाएँ वास्तविक हैं; किन्तु स्वाभाविक नहीं, वैभाविक हैं अर्थात् विकार से उत्पन्न होती हैं । यदि ये अवस्थाएँ अवास्तविक होतीं तो इनका गगन कुसुम (आकाश के फूल ) के समान अनुभव भी न होता, और सत्र जीव परमात्म अवस्थामय होते; किन्तु ऐसा नहीं है । आत्माएँ अपने पुरुषार्थ और तपश्चरण द्वारा कर्मकलंक नष्ट करके परमात्मा बनती हैं। जब तक सांसारिक आत्माएँ परमात्मा नहीं बनतीं और परमात्मा होकर सुखी होने की इच्छा रखती हैं तब तक उन्हें परमात्मा को आदर्श मानकर उनके गुणों की पूजा करना, स्तवन करना व श्रद्धाभक्ति प्रकट करना चाहिये और उसके गुणों का चिंतन कर अपनी आत्मा में उन गुणों के अनुभव करने का प्रयत्न करना चाहिये । परमात्मा राग द्व ेष रहित है, इसलिए वह किसी के स्तुति करने पर प्रसन्न और गालियां देने पर अप्रसन्न नहीं होता । केवल अपने भावों की शुद्धि, भ्रमनिवारण, आत्मानुभव, अपने आदर्श पर श्रद्धा और भक्तिभाव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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