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जैनधर्म
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गुणी को छोड़ कर गुण कोई वस्तु नहीं। अतः आत्मा के जो ज्ञान, दर्शन, सुख आदि स्वाभाविक गुण या स्वयं आत्माही संसार में विकारमय अवस्था को प्राप्त हो रहा था, वह विकार के कारण राग, द्वेष, मोह आदि भाव कर्मों और पुद्गल परमाणु रूप द्रव्य कर्मों के दूर हो जाने पर अपने स्वभाव को प्राप्त हो जाता है,
और उसी अवस्था को परमात्मा कहते हैं। यह परमात्मा न तो किसो से राग करता है न द्वष, अपने अनन्त आनन्द में मग्न होकर अनन्त ज्ञानादि गुणों का स्वतन्त्रतापूर्वक अनन्त काल तक उपभोग करता रहता है, और फिर कभी संसार के जन्म मरण रूप संकट में नहीं फँसता। जिस भांति बीज वृक्ष की सन्तान अनादि होते हुए भी बीज के एक बार भी अग्नि में भून लेने पर फिर उससे काई वृक्ष पैदा नहीं होता या धान (छिलका सहित चावल ) से पौदा और पौदे से धान अनादि काल से उत्पन्न होते रहने पर भी चावल से उसका छिलका एक वार भी कूट कर भिन्न कर देने से शुद्ध चावल के द्वारा फिर पौदा उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार आत्मा से अनादि काल से लगा हुआ कर्म मल जब आत्मध्यान से पृथक् कर दिया जाता है तब फिर कभी भी उसके जन्ममरण रूप सन्तान में पड़ कर संसार में परिभ्रमण करने की संभावना नहीं रहती। आत्मा के परमात्मा बन जाने पर फिर कभी संसार में पड़ने की संभावना तभी हो सकती थी जबकि उसमें कभी रागद्वेष, विकार उत्पन्न होते और उससे नवीन कर्म बन्ध होकर उसका फल भुगतना पड़ता; किन्तु मुक्त जीवों
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