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जैन-धर्म
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तो सब पदार्थ सचेतन ही उससे पैदा हो सकेंगे, न कि असंख्य अचेतन पदार्थ, जबकि उपादान के अनुरूप ही कार्यों की उत्पत्ति होती है । यदि ईश्वर के सिवाय कोई अन्य उपादान माना जायेगा तो उसकी उत्पत्ति कैसे हुई ? और फिर जिससे उसकी उत्पत्ति हुई तो उसकी किससे हुई ? इस प्रकार प्रश्न उठते ही चले जायेंगे । अन्त में जिसे भी अनुत्पन्न माना जायेगा उसे नित्य स्वीकार करना पड़ेगा, फिर जगत् को ही नित्य स्वीकार करने में कौनसी बाधा है ? इसके अतिरिक्त न तो ईश्वर को किसी ने जगत की रचना करते देखा है ओर न बीज वृक्ष या गर्भज मनुष्यादि प्राणियों की संतान परम्पराएँ ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता सिद्ध करती हैं, क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में पुरुष और स्त्री के संयोग बिना पुरुषों की उत्पत्ति या बीज बिना वृक्षों की उत्पत्ति का होना और वह भी निराकार ईश्वर से ? नितांत असम्भव है ।
ईश्वर को जगत्कर्त्ता मानने और भी कई वाधाएँ आकर उपस्थित होती हैं। कर्तावादी ईश्वर को निराकार, निर्विकार, पूर्ण सुखी, सच्चिदानन्द, पूर्णज्ञाता, दृष्टा, नित्य, व्यापक और सर्वशक्तिसम्पन्न एक स्वर से स्वीकार करते हैं। यही नहीं, उसे परमदयालु, अशरण-शरण और न्यायकर्त्ता भी माना जाता है। उक्त गुणविशिष्ट परमात्मा के एक २ गुरण पर विचार करने मात्र से ईश कर्तृत्व की कल्पना शतशः विदीर्ण हो जाती है । सर्व प्रथम निराकार ईश्वर से साकार जगत् की
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