Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 95
________________ जैन-धर्म [६० ] दूसरों के ऐबों पर दृष्टि न रख कर गुणों पर दृष्टि रखना और कुसङ्गति से यथाशक्ति बचने की कोशिश करना भी मनुष्य का कर्तव्य होना चाहिये । यह भी न भूलना चाहिये कि संसार में शान्ति रखने की ज़िम्मेदारी, संसार के असंख्य मनुष्यों में से एक मनुष्य होने के कारण, प्रत्येक व्यक्ति पर लदी हुई है और इस ज़िम्मेदारी को पूरा करना भी प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है जिसे वह निम्नलिखित विश्वशान्ति के मूल मन्त्र की भावना द्वारा पूरा कर सकता है और उसे ऐसा करना चाहिये :सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ-भावं विपरीत-वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ! भगवन् ! संसार के सम्पूर्ण प्राणियों से मित्रता, गुणी पुरुषों को देख कर प्रसन्नता, दुःखी जीवों पर दयार्द्रता और अकारण द्वष करने वालों या दुष्ट जीवों पर माध्यस्थता अर्थात् न राग, न दुष, मेरी आत्मा निरन्तर धारण करे। ऐसी पवित्र भावना रखने और तदनुकूल आचरण करने से ही संसार में विश्वशान्ति का विशाल साम्राज्य स्थापित हो सकता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का मनुष्यता के नाते यह परम कर्तव्य होना चाहिये कि वह जीवन की उपरोक्त चर्या और भावनाओं को अपने जीवन में अवश्य उतारे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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