Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 94
________________ जैन-धर्म [ ] बदले की इच्छा के, पात्रानुसार वितरण करना, दूसरों को दुःख व सङ्कट से निकालना व ज्ञान-वृद्धि के साधन जुटाना । इन कर्त्तव्यों का पालन करने के अतिरिक्त कुछ कार्य ऐसे हैं जो आत्मोन्नति में बाधक हैं व संसार में और अपनी आत्मा में भी अशान्ति उत्पन्न कर पतन की ओर ले जाने वाले हैं । अतः उनसे शक्ति भर बचने का प्रयत्न करना और उनके पास न जाने की प्रतिज्ञा करनी भी आवश्यक है; क्योंकि इन दुर्व्यसनों का एक बार भी चसका लग जाने पर फिर उनका छूटना कठिन हो जाता है जैसे - जुआ खेलना, मांस खाना, शराब पीना, शिकार खेलना, वेश्या और परस्त्री सेवन करना, चोरी करना आदि ऐसे ही कार्य हैं, तथा झूठ बोलना, परनिंदा करना, घमंड करना, छल कपट या विश्वासघात करना, अन्याय करना, अत्याचार करना इन कार्यों को तो भूल कर भी न करना चाहिये । प्रत्येक व्यक्ति अपने २ भाग्य का स्वयं ही निर्माता है, इसमें ईश्वर या अन्य किसी दैवी शक्ति का कोई हाथ नहीं । अतः अपना सुधार हमें अपने आप ही करना पड़ेगा, इस बात का निरन्तर ध्यान रखते हुए हर एक मनुष्य को प्रति दिन और प्रति क्षण आत्म निरीक्षण करते रहना चाहिये कि मैं कोई ऐसा विचार या कार्य तो नहीं कर रहा हूँ जो मुझे पतन की ओर लेजाने वाला है । अपनी आत्मा और चरित्र की रक्षा मनुष्य अपने आप ही भले प्रकार कर सकता है । इसके अतिरिक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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