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जैन-धर्म
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भोगना भी उन्हीं के आधीन मानने में क्या आपत्ति है ? जो जैसे कर्म करता है उसका फल कर्म उन्हें स्वयं ही समयानुसार दिया करते हैं । जैसे कि खाया हुआ भोजन अपने आप ही पेटमें खून, मांस, वीर्य आदि रूप बनता और प्राकृतिक रूप से बल, रोग, तन्दुरुस्ती या कामादिक विकारों को पैदा करता है, वैसे ही कर्मबन्धन भी समयानुसार फल देता है।
इसके सिवाय जबकि ईश्वर सर्वशक्तिमान, घट घट व्यापक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और आदर्श न्यायकर्ता है तो उसका क्या यह कर्त्तव्य नहीं है कि इन अज्ञ किन्तु अपनी ही सन्तान सांसारिक प्राणियों को पाप करने ही न दे । एक अल्पज्ञ, स्वल्प शक्तिसम्पन्न पिता भी जब अपनी सन्तान को जहां तक उससे हो सकता है, ऐसी ही शिक्षा देता है जो उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगावे, और अपनी शक्त्यिनुसार उसका हित ही करता रहता है। तो क्या परमदयालु, आदर्श न्यायशील, सर्वशक्तिमान, परम पिता ईश्वर का यह कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी सर्व शक्ति लगा कर अपनी सम्पूर्ण सन्तान को पाप करने ही न दे ? क्या यही ईश्वरीय न्याय है कि रोकने की शक्ति रखते हुए भी स्वेच्छा पूर्वक अव्वल तो प्राणियों से हत्याकाण्ड, व्यभिचार, बलात्कार, अत्याचार आदि भीषण कृत्यों को जी खोल कर करवा लेना, और फिर बेचारों को सङ्कट के सागर में पटक कर अपनी सर्व शक्तिमत्ता दिखाना!
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