Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 99
________________ जैन-धर्म [४] पर जो २ बाधाएँ आकर उपस्थित होती हैं उनका कुछ भी संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल पाता। सर्वशक्तिमान, दयानु परमात्मा ने यदि यह दुनियां बनाई होती तो इसमें दीन दुःखी प्राणियों का अस्तित्व एवं असंख्य अत्याचार, पाप, पाखंड, वासना, व्यभिचार, हिंसा आदि का नारकीय दृश्य कभी भी दिखाई नहीं देता। “ईश्वर की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता" इस सिद्धान्त को विना किसी तर्क और प्रमाण के गले उतार लेना आसान है; किन्तु जब यह प्रश्न उठता है कि तो क्या दुनियां में होने वाले सम्पूर्ण पाप और अत्याचार भी ईश्वरेच्छा से ही हो रहे हैं ? यदि हां, तब तो पापकर्ता सांसारिक प्राणी निर्दोष और ईश्वर ही पूर्ण दोषी स्वयं सिद्ध हुआ ; फिर पुण्य और पाप का फल हम निरपराध प्राणियों को क्यों मिलता है ? और पाप जिस ईश्वर की मर्जी से होते हैं वह चैन की वंशी क्यों बजाता है ? तथा हमें दया, क्षमा, परोपकार आदि के करने और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि के न करने के उपदेश देने व सुनने की आवश्यकता ही क्या है, जबकि ईश्वरेच्छा से ही हम सब कुछ करते हैं और हमें कुछ भी स्वतंत्रता नहीं है ? यदि कहा जाय कि कर्म करने में प्राणी स्वतन्त्र हैं; किन्तु उनका फल उन्हें ईश्वर द्वारा ही प्राप्त होता है, तो “ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता" इस सिद्धान्त पर स्वयं ही कुठाराघात हो गया, क्योंकि उसकी मर्जी के विना प्राणी कर्म करने में स्वतन्त्रहैं और यदि ऐसा है तो प्राणियों को कर्मफल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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