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जैन-धर्म
[८७] का प्रकटीकरण करने के लिये परमात्मा की उपासना और पूजा करना उचित है। जब साकार परमात्मा के साक्षात् दर्शन न मिलें तो उन्हीं की भांति उनकी मूर्ति (प्रतिमा) को प्रतिष्ठित कर, जिसपर वीतरागता झलक रही हो, परमात्मा की उपासना करना चाहिये, क्योंकि उनकी मूर्ति के दर्शन से भी सिवाय उपदेश के सम्पूर्ण लाभ लिए जा सकते हैं और अपने भावों में शान्ति एवं वीतरागता को प्राप्ति के अतिरिक्त सम्यग्दर्शन (आत्मानुभव) आदि की प्राप्ति तक हो सकती है।
संसार में आत्माएँ अनन्तानन्त हैं। यदि उनकी अवस्थाओं पर विचार किया जाय तो वे मनुष्य, देव, नरक, तिर्यंच (पशु पक्षी) चार प्रकार की हैं और इनमें भी अनेक भेद हैं। यहां चौरासी लाख योनियों द्वारा जीव जन्म मरण करते रहते हैं। सम्पूर्ण योनियों में मनुष्य योनि ही श्रेष्ठ योनि है; क्योंकि इसको पाकर आत्मा अपने भले बुरे का विचार कर सकता है, साथ ही तपश्चरण कर मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है। मनुष्य होकर भी जो अपने जीवन को खाने पीने मौज उड़ाने में ही गँवा देता है और आत्मा की भलाई बुराई पर तनिक भी विचार नहीं करता, न अपनी उन्नति के लिये मानवोचित कर्म और धर्म का पालन करता है, वह मनुष्य नहीं पशु है; बल्कि उससे भी बुरा है। मनुष्य को चाहिये कि वह धर्म के स्वरूप को और अपनी आत्मा को भली भांति समझकर निम्न लिखित प्रारम्भिक नियमों का अवश्य पालन करे।
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