Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 88
________________ जैन-धर्म [ ८३ ] जैनधर्म- सिद्धान्त चराचर पदार्थों से भरा हुआ यह जगत अनादि अनन्त है। न तो यह कभी किसी के द्वारा बनाया गया था और न कभी इसका अन्त ही होगा। इसमें परमात्मा और आत्मा इस भांति चेतन तत्व दो विभागों में बँटा हुआ है-संसार में जो आत्माएँ जन्म मरण करती हुई शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार के कष्टों को उठाया करतीं हैं, उनमें चाहे देवों का राजा इन्द्र हो या मनुष्यों का इन्द्र चक्रवर्ती, सब ही किसी न किसी प्रकार दुःख और आकुलता का अनुभव करते हैं और इस भांति सांसारिक सब ही प्राणी दुःखी व परतन्त्र हैं । सांसारिक प्राणियों को, जो कि भ्रमवश अचेतन या अपने से भिन्न चेतन पदार्थों के साथ भोगोपभोग कर सुखी बनने के स्वप्न देखा करते हैं, कर्म-बन्धन लगा हुआ है, और इस कर्म बन्धन के आधीन ये सब दुःख उठाया करते हैं । कर्म एक अचेतन द्रव्य के परमाणु हैं, जिसे पुद्गल या Matter कहा जाता है। इन अचेतन परमाणुओं में आत्माके विकार, भाव, रागद्व ेषादि के द्वारा आत्मा के साथ बँधकर सांसारिक दुःख सुखादि देने की शक्ति हो जाती है और अचेतन मद्य (शराब), संखिया आदि चीजों की भांति समय समय पर फल देते रहते हैं । इस भांति आत्माएँ अपने २ भावों और कर्मों के द्वारा स्वयं ही सुख दुःख का अनुभव करती रहती हैं; इसमें किसी दूसरी शक्ति का कोई हाथ नहीं । दूसरे शब्दों में प्रत्येक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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