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जैन-धर्म
[ ८४ ] आत्मा अपने भाग्य का स्वयं ही निर्माण करती है और · उसका फल भी उसे स्वयं (कर्मों के परिपाक काल आने पर) मिलता रहता है। ईश्वर या परमात्मा इस सम्बन्ध में कुछ नहीं करता।
जो आत्मा मोह व राग द्वष का त्याग कर नवीन कर्मों का बंध नहीं करती एवं पुराने कर्मों का तपश्चरण और आत्मध्यान के द्वारा आत्मा से पृथक् कर देती है, वही परमात्मा बन जाती है। फिर उसको जन्म, मरण, रोग, शोक आदि व्याधियां नहीं सतातीं और न उसमें फिर अज्ञानता आदि दोष ही रहने पाते । उसकी सम्पूर्ण इच्छाओं का, जो कि मोह से पैदा होती हैं; अभाव हो जाता है और वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, कृतकृत्य, समदर्शी या वीतराग हो जाता है, कुछ दिनों तक, जब तक कि आयु कर्म शेष रहता है, वह सशरीर या साकार परमात्मा के रूप में भूमंडल पर भूली भटकी संसारी आत्माओं को धर्म का सत्य मार्ग बताता है और फिर शरीर त्याग कर निराकार परमात्मा बन जाता है। साकार व निराकार दोनों अवस्थाओं में परमात्मा अपने असली स्वरूप में मग्न रहता है । आत्मा का असली स्वरूप अनन्त ज्ञान, दर्शन, आनन्द, शक्तिमय है। चाहें तो इन गुणों के समुदाय को भी आत्मा कह सकते हैं। गुण (ज्ञानदर्शन आदि)
और गुणी (प्रात्मा ) में नाम मात्र का भेद है जो कि गुण गुणी आदि का कथन कर दूसरों को आत्मा का लक्षण समझाने के लिये करना पड़ता है। वास्तव में गुण को छोड़ कर गुणी और
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