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जैन-धर्म
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अन्य अंशों के सम्बन्ध में आंखें मीचने का प्रयत्न किया और उनके सम्बन्ध में विचार करने से इन्कार कर दिया या अपनी संकुचित दृष्टि से उसे मिथ्या या भ्रमरूप बताया और अपने अंशात्मक ज्ञान को ही पूर्ण और सत्य कहा, वहीं जैन दर्शन ने तत्वज्ञान के सम्बन्ध में उदारता से काम लेते हुए वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने और उसकी खूबियों को हर पहलू से विचार करने के लिये प्रेरित करते हुए निष्पक्ष हो कर वस्तु को पूर्ण ज्ञान प्राप्त कराने को अग्रसर किया। यही जैन दर्शन की महती मौलिकता है जो उसे पूर्ण दर्शन कहने के लिये प्रेरित करती हुई सम्प्रदायवाद से उत्पन्न संघर्षों को दूर कर उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने और सब ही के विचारों का आदर करती हुई ( यदि वह निष्पक्ष हों तो उन्हें सत्य घोषित कर ) एक सुन्दर श्रादर्श उपस्थित करती है, एवं विश्व को सत्य के पवित्र मार्ग की ओर अग्रसर करती है। इसी उदार और निष्पक्ष दृष्टिकोण द्वारा वस्तु तत्व को प्रकट करने की प्रणाली को जैनदर्शन में "स्याद्वाद" के नाम से प्रकट किया गया है जो कि वस्तु के सम्बन्ध में किसी एक गुण को प्रकट करने की इच्छा होने पर उसे प्रकट करते समय मुख्य व शेष गुणों को गौण कर देता है और कहता है कि वस्तु का स्वरूप विवक्षित गुण की अपेक्षा ऐसा भी है । वह यह नहीं कहता कि ऐसा ही है। इससे यह स्पष्ट हैकि एक ही वस्तु किसी दृष्टि से भेद रूप और किसी से अभेद रूप, एक रूप अनेक रूप, नित्य
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