Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 83
________________ जैन-धर्म [७ ] ज्ञान प्राप्त करने से मुंह मोड़ कर हठवाद का आश्रय ले पक्षपात के गहन गह्वर की ओर जाने का प्रयत्न करते हैं, वहीं जैनदर्शन उदारतापूर्वक वस्तु के सम्बन्ध में प्रत्येक दृष्टि से उसके हर एक गुण और उसकी अवस्था का ठीक २ विचार कर वस्तु स्वरूप का वैज्ञानिक रीति से पूर्ण और यथार्थ ज्ञान कराने की कोशिश करता है। यही नहीं, जबकि दो दर्शन एक ही वस्तु के सम्बन्ध में उसके विभिन्न दृष्टियों द्वारा देखे गये भिन्न २ गुणों का आश्रय लेकर परस्पर विसंवाद करते हुए एक दूसरे को झूठा तक कहने का साहस करने लगते हैं- जैसे बुद्ध दर्शन जब केवल वस्तुओं की अवस्था पर ही दृष्टि रख कर उनके बदलते रहने के कारण वस्तु को सर्वथा अनित्य (क्षणिक) मानता और नित्यवादी सांख्य को झूठा बताता है, तथा सांख्यदर्शन जबकि वस्तु के केवल गुणों पर विचार करता हुआ क्योंकि वे कभी नष्ट नहीं होते, अतः वस्तु को सर्वथा कूटस्थ नित्य सिद्ध करने का प्रयत्न करता है एवं उनकी बदलने वाली हालतों पर तनिक भी विचार न कर इस ओर दृष्टि को संकुचित बना कर अनित्यवादी बुद्ध-दर्शन को झूठा साबित करने का प्रयत्न करने लगता हैतब जैन-दर्शन कहता है कि मित्रो ! तुम दोनों यथार्थवाद को छोड़कर अपने संकुचित दृष्टिकोण और पक्षपात के कारण व्यर्थ मात्सर्य न करो और न एक दूसरे को भला-बुरा कहो, वस्तु सचमुच पर्याय (हालत ) की दृष्टि से अनित्य (क्षणिक ) और द्रव्य व गुणों की दृष्टि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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