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जैन-धर्म
[ ६६ ] सन्ताप का कारण बन कर स्वस्थ मनुष्य को भी मृत्यु के घाट उतार देता है । वचनों की सत्यता के बल पर ही दुनियां के संपूर्ण कारोबार ठीकर चल सकते हैं और मनुष्य एक दूसरे पर विश्वास कर सकते हैं। इस समय जो दुनियां में कुछ सोचने और कुछ कहने, वचन देकर पूरा न करने, व विश्वासघात करने, एवं दूसरों की निन्दा व आत्म प्रशंसा के राग अलापने की प्रवृत्ति चल रही है वह सब हिंसा का ही एक अङ्ग है जिसे वाचनिक हिंसा कहना उपयुक्त होगा। अतः मनुष्य का चाहिये कि वह वचन का ठीक २ व्यवहार करे, परनिन्दा एवं पीड़ाकारी वचन कदापि न कहे और न ऐसे वचन बोले जो दूसरों को हानि पहुँचावें, अप्रिय या असत्य हों, अथवा पापाचार या विश्वासघात से भरे हों। यह याद रखना चाहिये कि जब तक अन्तःकरण पवित्र न होगा तब तक वचनों में यथार्थता और मधुरता नहीं आ सकती, और इनके आये बिना संसार में न तो व्यवहार ही ठीक चल सकता है और न शान्ति ही कायम हो सकती है। क्योंकि मनुष्य का पारस्परिक प्रत्येक कार्य और व्यवहार वचन के द्वारा प्रारम्भ होता है। आज संसार में मनुष्य प्रायः झूठे
और बेईमान बन गये हैं। वे पैसे २ के लिये झूठ बोलना पाप नहीं समझते । मनुष्य आज इतना पतित हो गया है कि वह न्यायालयों में भी जाकर शान के साथ झूठी शपथ खाने में नहीं लजाता! दो झूठे गवाह तैयार किये और मुकदमे में जीत का डङ्का बजा ! इससे न्याय का गला तो घुट ही रहा है साथ ही दुनियां में
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