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जैन-धर्म
[६८ ] अनुभव आसानी से हो सकता है। इसलिए दूसरों को कष्टप्रद होने के कारण चोरी में परहिंसा भी पूर्ण रूप से होती है।
इस दोष के अतिरिक्त मनुष्य की सचाई की कसौटी और ईमानदारी का प्रमाण आर्थिक क्षेत्र में ही मिलता है। जो मनुष्य १ पैसा तो दूर, दूसरे की एक कौड़ी भी अपहरण नहीं करता, दूसरों की कीमती से कीमती चीज़ों पर मोहित नहीं होता
और न बेईमानी से दूसरे के धनादिक को ही हड़पने की इच्छा रखता है वह सचमुच हिंसा के उपर्युक्त दोषों से लिप्त न होकर अपने चरित्र बल से आत्मा को उन्नत कर सकता है। किन्तु चोर
और बेईमान जो निरन्तर दूसरों का माल हड़पने की ताक में लगा रहता है वह आत्मा को पतन की ओर ले जाता हुआ
आत्महिंसा और परहिंसा के दोषों से मुक्त नहीं हो सकता और न ऐसे नीचतापूर्ण कार्यों से संसार में ही शान्ति स्थापित हो सकती है। अतः चोरी को हिंसा का अङ्ग जानकर त्याग करना ही चाहिये । इसके अतिरिक्त नैतिकदृष्टि से भी किसी के कमाये हुए धन को अपहरण करने का किसी को कोई अधिकार नहीं है।
दूसरों की स्त्रियों या मां, बहिन, बेटियों पर नीयत बढ़ बना कर उनसे रमना, दुर्भावना या रमने की इच्छा करना ही कुशील है, आत्मा को मोहित करके पतन की ओर जाने व उसके चारित्रगुण का समूल नाश करने के कारण प्रकट है कि वह भी हिंसा का ही एक भेद है । इस लिये मनुष्य का यह कर्तव्य
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