________________
जैन-धर्म
[ ६६ ]
है कि वह उपर्युक्त हिंसा के कारण कुशील का भी अवश्य त्याग करे ।
मोहवश प्राणियों में जो विषय वासना जागृत होती है उसकी पूर्ति स्त्री पुरुष परस्पर में सम्भोग कर किया करते हैं। यह पहिले ही बताया जा चुका है कि परवस्तु के भोग में सच्चा सुख नहीं मिल सकता; इसी लिए मैथुन कर्म से भी सच्चा सुख नहीं मिल सकता; फिर भी विषयांध मनुष्य उसमें सुख की कल्पना करते हैं । क्षणिक किन्तु निःसार सुखाभास के लिए विषयांध होकर स्त्री सम्भोग करने के अनन्तर उनकी क्या दशा होती है और वे कितना सुख अनुभव करते हैं, इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक मनुष्य अपने अन्तःकरण से पूछ सकता है; अतः आत्मा को विषय सेवन द्वारा सुखी बनाने के लिये मैथुन सेवन करना और ब्रह्मचर्य का न पालना न केवल मूर्खता है बल्कि अपने पतन का भी कारण है, और इसीलिए हिंसा है । अतः वे पुरुष और महिलाएँ धन्य हैं जो इन्द्रियों पर क़ाबू रखते हुए पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करती हैं; किन्तु विषय वासना को पूर्णरूप से जीतना प्रशंसा का कार्य होते हुए भी आसान काम नहीं । अतः जो पुरुष पूर्ण रूपेण ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ हैं उन्हें एक पत्नीव्रत और स्त्रियों को एक पतिव्रत का पालन कर विषय वासना को सीमित बनाना और विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों से काम सेवन का त्याग करना ही चाहिए और अपनी स्त्री के साथ भी सन्तानोत्पत्ति के उद्देश्य के सिवाय विषय भोग
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com