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जैन-धर्म
[६७ ] भी अशान्ति फैल रही है और पारस्परिक विश्वास तो प्रायः समाप्त ही हो गया है, इस भांति जब कि संसार की सामूहिक शान्ति भी असत्य भङ्ग कर डालता है और संसार के कार्य तक असत्य के द्वारा ठीक नहीं चल सकते तो आत्मकल्याण और आत्मोन्नति होना तो नितान्त ही असम्भव है। बल्कि आत्मा असचनों के द्वारा पतित ही होता है और यह आत्मपतन ही आत्मघात है जो हिंसा का ही दूसरा नाम है।
चोरी में दूसरों की धनादि वस्तुओं को चुराने व हड़प जाने की बुरी नीयत रहा करती है। इससे आत्मा के पतन के साथ जिसकी चोज चुराई जाती है उसे भी कष्ट पहुँचाता है; इसलिये यह भी हिंसा का एक अङ्ग है।
धन सम्पत्ति को संसार में मनुष्य का ग्यारहवां प्राण कहा जाता है । इसे प्राप्त करने में मनुष्य दिन रात परिश्रम करते हुए शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के कष्ट सहन करते है,
और अपने कमाये हुए धन को प्राणों से भी प्यारा समझते हुए उसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते हैं। एक पैसा भी व्यर्थ खो जाय या छोटी से छोटी सुई जैसी वस्तु का पता न चले तो उसके प्राण व्याकुल हो जाते हैं और उनकी आत्मा दुःख का अनुभव करती है। फिर भला इससे अधिक कीमती वस्तुओं को बिना उसकी आज्ञा के चुरा लेने में उसे कितना दुःख न होगा ? अपनी किसी वस्तु के दूसरों द्वारा चुरा लिये जाने पर जो कष्ट हमें होता है उससे दूसरे की चीज़ चुराने पर उसके कष्ट का
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