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जैन-धर्म
[७०] करने की विशेष लालसा नहीं रखनी चाहिए। एक पत्नीव्रत (ब्रह्मचर्य अणुव्रत) का पालन न केवल धार्मिक, बल्कि नैतिक दृष्टि से भी आवश्यक है और सामाजिक शान्ति एवं आत्म शान्ति के लिए तो अत्यन्त ही आवश्यक है। मनुष्य जिन कारणों से मनुष्य कहला सकता है उनमें केवल सुन्दर वस्त्रों से नंगे शरीर को ढक लेना तथा मकान बना लेना और
आपस में बातचीत कर लेना हो मनुष्य कहलाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता, बल्कि मनुष्य में मनुष्यता लाती है उसकी सचरित्रता और विवेक । इन दोनों गुणों के अभाव में मनुष्य देहधारी को खुशी से पशु कहने में कोई हानि नहीं। आज संसार की दशा बड़ी विचित्र है। मनुष्य में मनुष्यता की अपेक्षा पशुता का अधिक बोलबाला है। मानव समाजका अधिकांश भाग अनाचार और व्यभिचार के नरककुण्ड में पड़ा हुआ सानन्द गधे पर चढ़कर बैकुण्ठ देखने की कोशिश कर रहा है। सामने से किसी स्त्री के निकलने पर ललचाई हुई दृष्टि से सभ्य कहलाने वाले व्यक्तियों का घूरना एवं स्त्रियों का निरन्तर परपुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करते रहना
और नित नये फैशन बदलने में विलासिनी स्त्रियों को भी मात करने का उपक्रम रचना पतन के गह्वर की ओर कदम बढ़ाना नहीं तो और क्या है ? आखिर वह कौनसा सद्विचार है जिसके वश होकर पुरुष और स्त्रियां उपरोक्त कार्यों में प्रवृत्त होते हैं ? यह ढोंग और खतरनाक सभ्यता मानव समाज को पतित और
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