Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 80
________________ जैन-धर्म [ ७५] के अनुसार धन दौलत का परिमाण करके गृहस्थी में सन्तोष के साथ जीवन व्यतीत करे तथा परिमाण व आवश्यकता से अधिक धन के हो जाने पर दूसरे दीन, हीन मनुष्यों की सहायता कर उनके दुःखों को दूर करने की कोशिश करे या अन्य सार्वजनिक कार्यों में खर्च करे, तथा यह ख़याल रक्खे कि आत्मा से धन कीमती वस्तु नहीं है और न इससे सच्चा सुख ही मिल सकता है। फिर यदि दूसरों का मेरे कमाये हुए धन द्वारा भला होता है, उनके भौतिक दुःखां का अन्त होता है, तो क्यों न ऐसा करके मैं दूसरों के कष्टों को दूर करूँ, जब कि वे भी मेरी ही तरह दुःखों से छूटना और सुखी बनना चाहते हैं ? इस प्रकार पवित्र भावना रखने वाला मनुष्य मनुष्यत्व को पाकर सच्चा मनुष्य बन जायेगा और अपने साथ दूसरों को सुखी बनाने में तथा संसार में शान्ति स्थापित करने में परम सहायक सिद्ध होगा। तथास्तु ! यही आदर्श अहिंसा सच्चा धर्म है और इसे ही जैन धर्म ने अपने मूल सिद्धान्त के रूप में अपना कर संसार के प्राणीमात्र के लिए सच्चे सुख और शान्ति के पवित्र मार्ग का सन्देश दिया है। जो लोग उपरोक्त वीरतापूर्ण अहिंसा को कायरता और बुज़दिली कह कर उसका मखौल उड़ाना चाहते हैं, उनका निःसन्देह आपस में कुत्तों की तरह लड़ २ कर अपना और अपने साथ दूसरों का जीवन बर्बाद करने के सिवाय और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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