________________
जैन-धर्म
[ ६४ ] अहिंसा की रक्षाकरने के लिए भोजनादि की शुद्धि भी अत्यन्त आवश्यक है। रसना इन्द्रिय की लोलुपता में जीवों को मार कर या उन्हें जिन्दा ही खा जाना, अथवा स्वयं मरे हुए जीवों का कलेवर खाना, अन्डे चूस जाना, शराब या अन्य प्रमाद बढ़ाने या काम विकार का उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का खाना पीना, तथा मक्खियों का वमन रूप शहद जैसे अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना अथवा अन्य ऐसे पदार्थों का सेवन करना जिनसे जीवों का घात हुए बिना नहीं रहता, अहिंसक व्यक्ति के कदापि योग्य नहीं हो सकता
और न इनके प्रथम त्याग किये बिना वह अहिंसा धर्म के पथ पर ही चल सकता है। इसी प्रकार प्राणियों की रक्षार्थ पानी छान कर पीना, रात्रि को भोजन न करना, गले सड़े फल व मर्यादा से रहित अन्य भोज्य पदार्थ, जिनमें कीटाणु पैदा हो चुके हों, न खाना भी अहिंसा की दृष्टि से आवश्यक है । स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इन पदार्थों का सेवन न करना लाभदायक है, जिसका वर्णन करना यहां अप्रासांगिक जान पड़ता है। अस्तु,
__ अहिंसा की रक्षा और उसका ठीक २ निर्वाहकरने के लिए ही ४ अन्य पापों का भी त्याग करना चाहिये; क्योंकि वे चार पाप भी आत्मा के गुणों का घात कर उसे पतन की ओर ले जाते हैं और दूसरों को भी कष्ट पहुँचाते हैं। अतः वे भी हिंसा के अङ्ग हैं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com