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जैन-धर्म
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करने की उनसे प्रेरणा की गई है । [ यदि कोई गृहस्थ गृहस्थाश्रम के कार्यों से उदास होकर अपना भार किसी योग्य उत्तराधिकारी को सौंप कर घर में रहता हुआ भी आरम्भी, उद्योगी व विरोधी आदि हिंसाओं को त्यागना चाहे तो वह ऐसा भी कर सकता है और उसके लिये यह जरूरी नहीं है कि वह गृहस्थी में रहकर सब प्रकार की हिंसाएँ करे ही; बल्कि जितना २ इन झंझटों का त्याग किया जायगा और आत्म शुद्धि की ओर प्रवृत्ति की जायगी उतने हो अशों में धर्म और सांसारिक फँसाव सम्बन्धी कार्यों को आदर्श मानते हुए आत्मपतन करना ही अधर्म होगा । इस दृष्टि से वह जितना अशुभ त्याग करेगा, उतना ही अच्छा । ]
जैन गृहस्थों के सिवाय जैन साधुओं ने भी जो अपने योग्य पूर्णरूप से अहिंसा का पालन करने के लिये हँसते २ अपने प्राणों तक का बलिदान किया है और वीरतापूर्ण कष्ट सहिष्णुता एवं धर्म प्रेम का परिचय दिया है वह भी वास्तव में शत मुख से प्रशंसनीय और अभिवंदनीय है। एक बार किसी साम्प्रदायिक धर्मान्ध राजा ने ५०० जैन साधुओं को उनके निरपराध रहते हुए भी जिन्दा कोल्हू में पिलवा दिया था किन्तु उनमें से एक ने भी भागने या उ करने की कोशिश नहीं की । ऐसे ही राजा बलि ने हस्तिनापुर में 900 जैन साधुओं के संघ को धर्म द्वेषवश नरमेध यज्ञ रच कर जिन्दा जला डालने का दुष्प्रयत्न किया था; किन्तु साधुगण तनिक भी ध्यान से विचलित नहीं हुए। ध्यानस्थ सुकुमाल मुनि के अङ्ग प्रत्यंगों को एक स्यालिनी ३ दिन तक अपने
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