________________
जैन-धर्म
[६ ] किन्तु गृहस्थाश्रम को त्याग कर सच्चे हृदय से साधु धर्म पालन करने वाले पुरुषों को, यह हम पहिले ही बता चुके हैं कि उन्हें सब तरह की हिंसा का त्याग करना ही चाहिये । यदि किसी साधु पर कोई दुष्ट आक्रमण करे, बांधे, मारे या प्राण तक लेने का षड़यन्त्र रचे तो भी उसे शत्रु के प्रति रश्चमात्र बैर, द्वष या क्रोध आदि का भाव न करते हुए प्रतीकार करने में समर्थ होते हुए भी उसे हृदय से क्षमा करना चाहिये, यही पूर्ण व सच्ची अहिंसा है ; जिसकी महिमा का वर्णन लेखनी से होना असम्भव है। उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि गृहस्थ और साधु दोनों ही अहिंसा का अपने २ पद के अनुसार एक देश व पूर्ण रूप से पालन करते हुए धर्मानुकूल भली भांति शान्ति पूर्वक जीवन बिता सकते हैं। गृहस्थ व साधु की अहिंसा में अन्तर तो प्रकट ही है। जो लोग बिना समझे जैनधर्म की अहिंसा को अव्यवहारिक कहा करते हैं, आशा है उनका भ्रम उक्त कथन से दूर हो जायेगा।
जैनधर्म के इतिहास और कथा ग्रन्थों में जैन गृहस्थों और साधुओं की सैकड़ों वीरतापूर्ण अहिंसा पालन सम्बन्धी गौरव-गाथाएँ भरी पड़ी हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार उन जैन गृहस्थों व साधुओं ने अपने २ पद के अनुरूप अहिंसा धर्म का शानदार पालन करते हुए वीरता, धीरता, और गम्भीरता का परिचय दिया था। बहुत प्राचीन कथाओं को छोड़ कर इतिहास के उज्वल रत्न, मौर्य साम्राज्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com