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जैन-धर्म
[ ३२ ] कहते हैं (मोहादि कर्म शत्रून जयतीति जिनः) और इस ही वीर एवं महापुरुष के द्वारा जो विश्व के दुखी प्राणियों को भंदभाव के बिना कल्याणमय सच्चा मार्ग प्रकट किया जाता है, जिससे कि संसार को दुखो आत्माएँ उसके ही समान परमात्मा बन सके, उस मार्ग को ही जैनधर्म कहते हैं। सारांश यह कि सांसारिक आत्माओं की दीनता को दूर कर वीरता के साथ पापवासनाओं व रागद्वषादि विकारों पर उन्हें पूर्ण विजयो बनाकर वास्तविक अानन्द तथा शांति के प्रशस्त मार्ग पर लेजा परमात्मपद प्रदान करने वाले धर्म को जैनधर्म कहते हैं। यह जैनधर्म का संक्षिप्त शाब्दिक विवेचन है। अब जरा इसके अर्थ और अभिप्राय पर भी गंभीरता के साथ विचार कीजिये।
जैनाचार्यों के कथनानुसार धर्म ही ऐसी वस्तु है जो प्राणीमात्र को संसार के दुःखों से छुड़ा कर उत्तम सुख ( वास्तविक आनन्द ) प्रदान कर सकती है। वह न केवल परलोक में सुख देने वाली चीज़ है, बल्कि सच्चा धर्म वह है जो जिस क्षण से पालन किया जाता है उसी क्षण से सर्वत्र और सर्वदा आत्म शांति प्रदान करता है और अपने साथ दूसरों को भी सुखी बनाता है।
नोटक-जैनसिद्धान्तानुसार धर्म, मंदिरों या मूर्तियों में, तीर्थक्षेत्रों या धर्मशास्त्रों में चिपकी रहने वाली वस्तु नहीं है, जिसे हम वहां पहुंच कर पकड़ सकते या प्राप्त कर सकते है, बल्कि
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