Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 40
________________ जैन-धर्म [३५] फैलने की शक्ति प्रकाश की भांति विद्यमान है । इसके प्रदेश यदि फैलने लगें तो एक ही आत्मा तीनों लोक में भी अपने प्रदेशों को फैला सकता है । यह आत्मा कर्मों से बँधा रहने और राग, द्वेष, मोहादि करने से संसार में नाना प्रकार कष्टों को भोगता फिरता है; यदि इन्हें न करे और कर्मों को नष्ट करदे तो अपनी स्वाभाविक परमात्मा रूप अवस्था को प्राप्त हो जाता है। ऐसा समझने वाले सम्यक्ष्टि पुरुष ही संसार में पूर्ण निःशङ्क और निर्भय हो सकते हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि आत्मा शरीर को बदल लेने के बाद भी मर नहीं सकता और न संसार की किसी वस्तु के संयोग वियोग से आत्मा का भला बुरा हो सकता। वे इन वस्तुओं के संयोग वियोग को कर्माश्रित समझते हैं व उससे आत्मा का हिताहित होना अनुभव नहीं करते । इसी लिए जिस क्षण से किसी व्यक्ति को सम्यक्दर्शन होता है उसी क्षण से उसके मोह व विशेष चिन्ता, शोक और तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभादि का अभाव हो जाने से मानसिक अशान्ति का बहुत कुछ नाश होजाता है, और वह पहिले की अपेक्षा बहुत सुखी बन जाता है। सम्यक्दर्शन के साथ ही आत्मा में जो तत्वों का यथार्य ज्ञान पैदा होता है उसे सम्यक्ज्ञान कहते हैं । हजारों शास्त्रों के पढ़ लेने व लाखों बातों के जान लेने पर भी यदि किसी को आत्मज्ञान नहीं है तो वह व्यक्ति सम्यक्ज्ञानी बनने का दावा नहीं कर सकता; किन्तु आत्मज्ञानी पुरुष बिना हजारों शास्त्रों को पढ़े व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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