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जैन-धर्म
[४४ ] और तत्व के स्वरूप को भली भांति समझता है, इस बात पर कभी आशंका नहीं कर सकता कि आत्मा इन सब सांसारिक दुःखों से अवश्य छूट सकता है, तथा उसके छूटने का उपाय सम्यक्दर्शन ज्ञान व चारित्र है। इस श्रद्धा को निःशंकित अङ्ग कहते हैं।
सम्यक्ष्टि पुरुष धर्म सेवन के बदले में इन्द्रिय जन्य सांसारिक सुखाभासों की भी चाह नहीं कर सकता; क्योंकि धर्म का सेवन संसार के झंझटों से छूटने के लिये किया जाता है, न कि उनमें फँसने के लिये। जबकि संसार में वास्तविक आत्मिक सुख है ही नहीं, तव जो व्यक्ति परवस्तुओं के भोग में सुख समझ कर उनके पाने की, धर्म सेवन के बदले में, चेष्टा करता है, तो समझना चाहिये कि अभी वह भ्रम में पड़ा हुआ है और उसे यह ज्ञान ही नहीं हुआ कि संसार सब प्रकार दुःखमय व पररूप है। प्रत्येक व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिये कि
आत्मा के सिवाय हमारा कुछ नहीं, और न सुख ही आत्मा के गुण के सिवाय कोई दूसरी वस्तु है जो इन्द्रियों के भोगों में प्राप्त हो जायगा । यदि संसार में या परवस्तुओं के भोग में सुख होता तो सांसारिक बड़ी से बड़ी विभूति को त्याग कर दुनियां के महान पुरुष जंगलों में जाकर तपश्चर्या करने का कष्ट न उठाते। ऐसी भावना को निःकांक्षित अङ्ग कहा गया है।
ऐसे ही सम्यक्दृष्टि यह समझता है कि संसार में जीवों की जो दुख व रोगमय या नीच ऊँच आदि अवस्थाएँ देखने में
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