Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 58
________________ जैन-धर्म [x2] गृहस्थ और साधु की हिंसा में अन्तर जैन धर्मानुसार इन चारों प्रकार की हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग गृहत्यागी साधु पुरुषों के लिये अत्यन्त आवश्यक और अनिवार्य है- बिना ऐसा किये कोई भी सन्त साधु नहीं कहला सकता । गृहत्यागी साधु पुरुष ही पूर्ण रूप से हिंसा का त्याग कर सकते हैं, जो कि संसार, शरीर व विषय भोगों से सर्वथा विरक्त रहते हुए अपने शरीर पर लँगोटी भी नहीं रखते और जिनकी चर्या सिवाय धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का साधन करने के और कुछ नहीं है । साधु बनकर उसके अनुरूप पूर्ण पापों का त्याग कर महाव्रतों का पालन करना व तप तथा ध्यान के द्वारा आत्मशुद्धि करते हुए कर्म कलङ्क का समूल नाश करना प्रत्येक मनुष्य का प्रथम आदर्श होना चाहिये और इन व्रतों के पालन करने की कोशिश करना चाहिये । अहिंसा की शक्ति और महिमा दोनों ही अनुपम व अचिन्त्य हैं । जब साधु पुरुष मन वचन कर्म से अहिंसक और वीतराग बनकर आत्मशुद्धि करने का प्रयत्न करते हैं; उस समय उनमें जो आत्मतेज प्रकट होता है उसके प्रभाव से बड़े २ अभिमानियों का मस्तक उनके चरणों में अपने आप झुक जाता है, जङ्गल के मृग और सिंहादि पशु पक्षी भी अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com •

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