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जैन-धर्म
[५१ ] करने या इनके वश होकर दूसरे के प्राणों का घात करने वा दिल दुखाने को हिंसा कहते हैं। सारांश यह कि क्रोधादि विकारों के द्वारा अपनी शांति, आनन्द और निराकुलता को भङ्ग करना और दूसरों की शांति व सुख को ठेस पहुँचाना ही हिंसा, तथा दुर्भावों का त्याग कर आत्म शान्ति व आनन्द की ओर बढ़ते हुए उन्हें भङ्ग न करना एवं दूसरों को शान्ति व आनन्द को अपने द्वारा ठेस न पहुँचना ही अहिंसा है। यदि कोई सावधानी के साथ दूसरों की रक्षा व हित का ध्यान रखते हुए कुछ काम करता है
और फिर भी उस कार्य के द्वारा किसी जीव के दिल को दुख पहुँच जाता है या उसकी जान ही चली जाती है तो उस मनुष्य को, जो कि यत्नाचार पूर्वक काम कर रहा है, हिंसा का दोष जरा भी नहीं लगता । इसी तरह जो मनुष्य प्रकट रूप में किसी को सताता या मारता नहीं है, किन्तु उसके भाव काम, क्रोध, राग, द्वेषादि से भरे रहते हैं तो समझना चाहिये कि वह पूरा २ हिंसक है।
___ उपरोक्त कथन से यह बात सहज में ही जानी जा सकती है कि जैन धर्म में किसी के बाहरी प्राणों के नष्ट होने या न होने मात्र पर हिंसा व अहिंसा निर्भर नहीं है, किन्तु दुर्भावों या दुर्भावना पूर्ण कार्यों में ही हिंसा और उनके अलाव में अहिंसा निहित है। यही जैनधर्म का हिंसा व अहिंसा सम्बन्धी संक्षिप्त रहस्य है। अब हिंसा के भेदों और अहिंसा पालन के व्यवहारिक रूप पर भी थोड़ा सा विचार किया जाता हैShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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