________________
जैन-धर्म
[ ५० ] लने की ताक में रहता है या अपनी प्रशंसा के गीत गाता और दूसरों की निन्दा करता है, या दूसरे धर्मात्मा भाइयों को अपने ऐश्वर्य आदि के अभिमान में आ कर नीचा दिखाना चाहता है, या धर्म से डिगते हुए पुरुषों को सहारा देने के स्थान पर उनसे ऐसा व्यवहार करता है कि जिससे वे धर्म कर्म छोड़ कर पतित हो जांय, अथवा आपस में निष्कपट प्रेम के स्थान पर द्वेष और सेवा करने के स्थान पर स्वार्थसाधन की भावना रखता है, वह मनुष्य चाहे कितना ही कुलीन, धनी, मानी या ज्ञानी क्यों न हो, कभी भी सच्चा धर्मात्मा और सभ्य नहीं कहला सकता।
अब जरा सम्यक्चारित्र की नीव और विश्व प्रेम की जड़, अहिंसा, जो जैनधर्म का एक महान अङ्ग है, तथा जिसके बिना कोई भी धर्म 'धर्म' नहीं कहला सकता, पर भी विचार कीजिये।
हिंसा और अहिंसा जैनधर्म कहता है कि यदि तुम अपने व दूसरों के जीवन को सुखी बनाना चाहते हो तो तन, मन और वचन से अहिंसा का पालन करो। इस अहिंसा का पालन हिंसा को समझे बिना नहीं होसकता, जब कि हिंसा का त्याग ही अहिंसा है।
जिन भावों, इरादों, अथवा कार्यों से प्रात्मा का पतन होता है ऐसे राग, द्वष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावों के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com