Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 53
________________ जैन-धर्म [४८] जिस तरह भी हो, धर्म मार्ग पर स्थिर रखकर उसकी व उसके धर्म की रक्षा करें। यह स्थितिकरण अङ्ग है। जब कि मनुष्य को मनुष्यता के नाते, जैसा कि पहिले कहा जा चुका है, मनुष्य ही नहीं, संसार के प्राणीमात्र को अपना बन्धु समझ उनसे प्रेम भाव रखना उसका प्रथम कर्त्तव्य है, तब धर्म सेवन करने वाले समस्त सहधर्मी भाइयों से विशुद्ध प्रेमभाव प्रकट करना तो और भी स्वाभाविक है । मुंह पर मित्रता पूर्ण चापलूसी से भरी हँस हँस कर बातें करना और पीछे से गले पर छुरियां चलाना या धोखा देना अथवा मन में रञ्च मात्र भी कपट रखना और वह भी सहधर्मी भाई के प्रति, एक सम्यग्दृष्टि पुरुष के लिए कदापि शोभा नहीं देता। वात्सल्य में बनावटी प्रेम के लिए कोई गुञ्जायश नहीं है। यदि कोई अपने सहधर्मी भाई के साथ प्रेमहीन, निष्ठुर या कपट पूर्ण व्यवहार करता है अथवा उनका यथायोग्य आदर, सत्कार सेवा, सुश्र षा, विनय आदि करने के स्थान पर उनका जरा भी अपमान या तिरस्कार करता है तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति में धर्म का लेश भी नहीं है । यही वात्सल्य अङ्ग है । इसी तरह संसार में छाये हुए अज्ञानरूपी अन्धकार के वश में हो कर और मोह, माया व मिथ्यात्व के कुचक में फँस कर जो प्राणी अपने जीवन को बर्बाद कर रहे हैं उन्हें धर्म का सच्चा स्वरूप समझाना और सन्मार्ग पर लगाने का.प्रयत्न करना भी सम्यग्दृष्टि का आवश्यक कर्तव्य है। जब कि वीर धर्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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