________________
जैन-धर्म
[ ४ ]
प्राणीमात्र का हितकारक होने से उनको सहारा देने की पूर्ण सामर्थ्य रखता है और वह प्राणीमात्र की सम्पत्ति है, तो न केवल दया ; बल्कि न्याय की दृष्टि से भी धर्म का पवित्र सन्देश प्राणीमात्र तक पहुँचाना प्रत्येक धर्मात्मा का प्रथम कर्त्तव्य है । जो मनुष्य अपने जाति, कुल, धन, बल या विद्वत्ता के घमण्ड से दूसरों को नीचा बनाये रखने के लिए उन्हें धर्म का पवित्र मार्ग बतलाने से इन्कार करते हैं या दूसरों को धर्म-कार्य करने से चित रखते हैं या बाधा डालते हैं वे उस मनुष्य का ही अहित नहीं ; बल्कि अपने धर्म का भी नाश कर डालते हैं, इस लिए जैनधर्म के उपर्युक्त प्राणीमात्र के हितचिन्तक, सुख शान्तिबर्द्धक, पवित्र, सत्य और वैज्ञानिक सन्देश को दुनियां के प्राणीमात्र तक पहुँचाने की यथासम्भव कोशिश करना भी धर्म का एक अङ्ग है । इसे ही प्रभावना अङ्ग कहते हैं ।
जो मनुष्य तत्व के स्वरूप को भली भांति समझता है वह चाहे नीच से नीच चाण्डाल भी क्यों न हो, देवता के समान पूज्य और वंदनीय है, और जो व्यक्ति आत्म तत्व के पवित्र हो सकने पर विश्वास नहीं करता, दुनियां के ऐश व भोगोपभोगों को ही सब कुछ समझता है, दीन दुखियों या धर्मात्मा पुरुषों की हीनावस्था देख कर उनसे घृणा करता है या जो मूढ़ताओं में फँसा रह कर कुरूढ़ि आदि को ही धर्म समझ उनके पालने में अपने को कृतकृत्य समझता है, अथवा रागी द्वेषी देवताओं के पूज कर उनसे अपना मतलब निका
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com