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जैन-धर्म
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धर्मात्मा के साथ उसका धर्म भी अवश्य बढ़नाम हो जाता है । अतः धर्म की निन्दा को रोकने और गुणों की वृद्धि करने के लिए यह आवश्यक है कि हमें यदि किसी व्यक्ति में कोई दोष दिखाई दे तो उसे दूसरों से न कहते फिरें; बल्कि दोषी मनुष्य को ही समझा दें कि आपके ऐसा करने से आपके साथ धर्म भी बढ़नाम होता है, इससे आप ऐसा न करें। यदि वह समझदार होगा तो हमारे ऐसा करने से हमारा कृतज्ञ होगा और भविष्य में सचेत हो कर उस पाप से बचने की कोशिश करेगा; अन्यथा धर्म की निन्दा तो रुकेगी ही। दूसरे, हमें गुणों की वृद्धि का लक्ष्य रखते हुए सर्वदा अपनी दृष्टि गुणों की ओर ही रखनी चाहिये और दूसरों के दोषों पर दृष्टि न डालना चाहिये । यही उपगूहन अङ्ग है ।.
इसके अतिरिक्त यदि कोई मनुष्य अपनी किसी कमजोरी, मूर्खता, विपत्ति, और लालचवश या इन्द्रियों की क्षणिक वासनाओं को तृप्त करने के लिए सदाचार के पथ से भ्रष्ट होरहा हो या धर्म सेवन करते रहने पर भी अपनी आर्थिक दशा न सुधरने, विपत्तियों पर विपत्तियों के आने अथवा किसी मनोरथ के सिद्ध न होने से धर्म सेवन को ही व्यर्थ समझ, अपनी धार्मिक श्रद्धा से विमुख हो रहा हो तो उस समय तत्वज्ञाता पुरुषों का कर्त्तव्य है कि धर्म की रक्षार्थ जैसे भी हो सके, उसे सन्मार्ग से विचलित न होने दें और युक्ति से काम लेकर, उसे
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