Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 50
________________ जैन-धर्म [४५ ] पाती हैं वह सब उनके किये हुए शुभाशुभ कर्मों के फल हैं । वास्तविक दृष्टि से तो सम्पूर्ण प्राणियों में मेरी ही तरह आत्मा मौजूद है, जो न रोगी है, न कोढ़ी है, न नीच वा ऊँच, न निर्धन, न धनवान । फिर यदि किसी मनुष्य या जीवधारी की पापकर्म के उदय से नीच व खराब हालत हो रही है तो इस कारण उससे घृणा करने की मूर्खता वह कैसे कर सकता है ? इस प्रकार जब वह मामूली प्राणियों से भी घृणा नहीं करता तो फिर धर्मात्मा पुरुषों के रोगी शरीर या उनकी हीनावस्था से तो कदापि भी घृणा नहीं करेगा। प्रत्युत् यथायोग्य सेवा, सुश्रुषा करता हुआ, उनके रोगादि को दूर करने की ही चेष्टा करेगा, और ऐसा करना ही उसका कर्त्तव्य है। इसे ही निर्विचिकित्सा अङ्ग कहा गया है। यह पहिले ही बताया जा चुका है कि समझदार व्यक्ति को अन्धों की भांति गुण दोषों की परीक्षा किये बिना हर एक देव को सच्चा देव व प्रत्येक साधुवेषी को सच्चागुरु अथवा धर्म के नाम पर होने वाली प्रत्येक क्रिया का धर्म न समझ लेना चाहिये, बल्कि उनके लक्षणों द्वारा सत्यासत्य का निर्णय कर, उन पर श्रद्धा व उनकी पूजा, उपासना आदि करना चाहिये । इसी तरह धर्म के नाम पर कभी २ कई लोकरूढ़ियां भी प्रचलित हो जाती हैं। उन पर विचार कर इस प्रकार व्यवहार करना चाहिये कि जिसमें सम्यग्दर्शन व अपने व्रतादि में दोष न लगे। यदि किसी रूढ़ि के सेवन से हमारी धार्मिक श्रद्धा में दोष लगता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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