________________
जैन-धर्म
सम्पूर्ण शरीरादि रहित मुक्त हो जावेगी। जिस भांति खान का सोना अनादि से कीट कालिमा आदि मलों से युक्त हुआ करता है और बुद्धिमान उसे भट्टी आदि में गला कर या दूसरी शुद्ध करने की क्रियाओं द्वारा कीट, कालिमा आदि मलों से दूर कर शुद्ध स्वर्ण निकाल लेते हैं उसी तरह संसारी आत्माएँ, जो कि अनादि से कर्म मल से लिप्त हैं, आत्मध्यान आदि के द्वारा कर्म कलंक को धोकर व अपने सहज पवित्र स्वभाव को प्राप्त होकर पूर्ण सुखी बन जाती हैं।
आत्मा की ओर कर्म परमाणुओं का खिंच कर आना ही जीव और अजीव तत्व के अतिरिक्त तीसरा आश्रव तत्व है व आत्मा के कर्मों से बँध जाने का नाम चौथा बंध तत्व है तथा शुद्ध भावों व क्रियाओं द्वारा नवीन कर्मों को पाने से रोक देना पांचवा संवर तत्व है और पहिले बँधे हुए कर्मों को धीरे २ अपने से दूर करने की क्रिया का नाम निर्जरा तत्व है और आत्मा का सम्पूर्ण कर्मों को दूर कर उनके बन्धन से मुक्त हो जाना ही सातवां मोक्ष तत्व है । यही आत्मा की असली अवस्था है और इसी अवस्था में सच्चा सुख प्राप्त होता है व इसी अवस्था को प्राप्त करना प्रत्येक सम्यक्दृष्टि का उद्देश्य रहना चाहिये।
सम्यग्दर्शन की विशेषताएं
तत्व के इस उपरोक्त रहस्य को समझने वाला प्रत्येक व्यक्ति, जो आत्म शुद्धि करने की ओर अपनी रुचि रखता है
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com