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जैन-धर्म
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तत्व क्या है ?
उस वास्तविक वस्तु के स्वरूप को तत्व कहते हैं जिसे जानकर हम अपना कल्याण कर सकें। मूल तत्व दो हैं १-जीव (आत्मा), २-अजीव (प्रकृति)। ज्ञान, दर्शन, आनन्द अथवा चेतनामय पदार्थ को आत्मा कहते हैं, जो प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है, एवं सुख दुःख का अनुभव करता है। यह शरीर व इन्द्रियों से भिन्न “मैं हूँ" शब्दों के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा स्पष्ट जाना जा सकता है। अजीव वह तत्व है जिसमें उपरोक्त चेतना या जानने देखने की शक्ति नहीं है [ अंजीव ५ प्रकार के हैं १-पुद्गल ( Matter ) २-धर्म (गति तत्व) ३-अधर्म (स्थैर्य तत्व) ४-आकाश ५-काल, ये पांचों अजीव और जीव ये ६ नित्य द्रव्य हैं जो कभी उत्पन्न व नष्ट नहीं होते-सदा से हैं व सदा तक रहेंगे]। संसारी जीव ओर अजीव के अन्तर्गत पुद्गल के परमाणु (कर्म) अनादि काल से सम्बन्धित हैं, और इसी कारण आत्मा संसार में जन्म मरणादि के दुखों को उठाता हुआ नवीन शरीरों को धारण कर नाना योनियों में भटक रहा है। जब शरीर, मन या वचन में हलन चलन, विचार व बोलने की क्रिया होती है तो शरीरादि से सम्बन्धित आत्मा में भी हलचल मच जाती है। आत्मा व शरीरादि की हलचल का आकाश में चारों
ओर भरे हुए पुद्गल-परमाणुओं पर भी असर (प्रभाव) पड़ता है और आत्मा की हलचल जब राग, द्वेष, मोह, क्रोधादि विकारों
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