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जैन-धर्म
[ १] इसलिए नाम पर न लड़कर गुणे की ही उपासना करना चाहिये। किन्तु जो इन गुणों में से किसी एक भी गुण से हीन है अर्थात जो सम्पूर्ण दोषों से रहित नहीं है, या सब बातों का जानकार नहीं है और मूर्ख है, अथवा जीवों को कल्याण का रास्ता बता कर उन्हें अपने समान बनने का उपदेश नहीं देता, और सदा अपनी सेवा, पूजा, भक्ति व गुण गान करवाने एवं उन्हें अपना सेवक बनाये रखने का ही प्रयत्न करता है तो ऐसा मूर्ख, दोषी, वा स्वार्थान्ध व्यक्ति सच्चा देव कदापि नहीं हो सकता।
सच्चा गुरुवह है जो विषयवासना से रहित होकर प्रारम्भ, परिग्रह का व मोह ममता का त्याग कर पापों से सर्वथा दूर रहता है, तथा ज्ञान, ध्यान व तप में ही मग्न रहते हुए सब जीवों और वस्तुओं से राग द्वेष छोड़ उनमें समता भाव धारण कर मोक्ष पुरुषार्थ का साधन करता रहता है व उपदेश द्वारा दूसरे जीवों को भी उसका साधन कराता है। इसके विपरीत जो आत्म ज्ञान से शून्य, रात दिन विषय कषायों में मस्त रहा करता है, वह रागी, द्वषो, आडम्बरी और ढोंगी साधु कदापि सच्चा गुरु नहीं हो सकता।
सच्चा शास्त्रवह है जो सच्चे देव का कहा हुआ हो, जिसमें स्याद्वाद
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