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जैन-धर्म
[४६ ] हो या हमारे आचरण में शिथिलता पैदा होने की संभावना हो, अथवा जिसमें धर्म का लेश भी नहीं है और उसके सेवन से पाप बढ़ता हो, या हमारा जीवन कष्टमय होता हो तो उसे तुरन्त ही त्याग देना चाहिये, यही अमूढदृष्टि अङ्ग है।
मनुष्य में अज्ञानता, प्रमाद और कमजोरी के कारण दोषों का होना साधारण बात है। अतः जो लोग धार्मिक रुचि रखते हैं और धर्मानुकूल आचरण करते हैं उनसे भी कभी उपयुक्त कारणों से दोषों का बन जाना सम्भव है। जैसे कि स्वच्छ सफेद वस्त्र पर कालिख का जरासा धब्बा या मैल तुरन्त मालूम होने लगता है और काले व मैले वस्त्र पर नहीं ; वैसे ही धर्मात्मा कहलाने वाले पुरुषों और साधारण पुरुषों में से दोनों के द्वारा एक सा दोष होने पर भी साधारण पुरुष के दोषों पर लोगों का उतना ध्यान नहीं जाता जितना कि धर्मात्मा के दोषों पर। दूसरे सदाचारी या धर्मात्मा कहलाने वाले पुरुषों के दोष करने पर उन्हें बदनाम करने से उनकी ही बदनामी होती हो सो बात नहीं है ; बल्कि अज्ञानी लोग उस धर्मात्मा के दोष का धर्म के साथ लपेटने की धृष्टता करने लगते हैं । यद्यपि किसी मनुष्य के पाप करने पर धर्म को बुरा कहना कदापि न्याय सङ्गत नहीं हो सकता ; क्योंकि धर्म सदा ही पवित्र वस्तु है। यदि धर्मात्मा गल्ती से या जान बूझकर कोई पाप करता है तो इसमें धर्म का क्या अपराध है ? फिर भी "न धर्मो धार्मिकैर्विना" अर्थात् धर्मात्मा पुरुषों के बिना धर्म नहीं होता ; इस उक्ति के अनुसार
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