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जैन-धर्म
[४२] के साथ पैदा होती है तब आत्मा में एक प्रकार को विद्युत् जेसो
आकर्षण शक्ति पैदा हो जाती है और उसके द्वारा वे पुद्गल के परमाणु चारों ओर से खिंच कर आत्मा की ओर आने व उससे बँधने लगते हैं । क्रोधादि भावों का उन परमाणुओं पर प्रभाव भी अवश्य पड़ता है और वे आत्मा को अपने २ तीव्र व मंद प्रभाव के द्वारा सुख दुखादि देने की शक्ति प्राप्त करके कालान्तर में सुख दुःख देने लगते हैं, इसीलिये उन्हें 'कर्म' इस नाम से कहा जाता है; क्योंकि उन्हें आत्मा ने अपने भावों द्वारा किया है व सुख दुखादि देने की शक्ति उनमें उसके भावों के असर से उत्पन्न हुई है। इस कर्म को ही भाग्य, विधाता, देव, तकदीर, स्रष्टा आदि अनेक नामों से कहा जाता है। जब आज का 'कर्म' कल या अपने समय आने पर सुख दुख आदि फल प्रदान करता है तब
आत्मा में फिर नवीन भाव पैदा होते हैं और उनसे फिर नवीन कर्म बंधते हैं, इस प्रकार अनादि काल से कर्म और उनके फल का क्रम बीज वृक्ष की भांति चल रहा है। यदि आत्मा अपने पूर्व म के फलों में राग द्वषादि न कर, समता भाव धारण करले ओर मन वचन काय को, जिनके कि हलन चलन द्वारा ही कर्मपरमाणु आने लगते हैं, वश में कर ले तो नवीन कर्म-परमाणु नहीं आवेंगे और आत्मध्यान व तपश्चरणादि द्वारा प्राचीन बँधे हुए कर्मों को बिना फल दिये ही आत्मा से पृथक् करते २ जब परमाणुओं को सर्वथा पृथक कर दिया जावेगा, तब आत्मा अपने शुद्ध चिदानन्दमय स्वभाव को प्राप्त होकर जीवन मुक्त और फिर
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