Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

View full book text
Previous | Next

Page 42
________________ जन-धम [ ३७ ] संयम, तपश्चरण, दया, क्षमा आदि भावों व कार्यों में प्रवृत्ति नहीं करता और हिंसा, झूठादि पाप व क्रोधादि कषायमय दुर्भावों को करने रूप बदपरहेजी करता है, वह दुःखां से कैसे मुक्त हो सकता है ? अस्तु, इस सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से महान् पापिष्ठ और पतित आत्माएँ भी परमात्मा बन सकती हैं। कल्याण और आत्मोन्नति का इच्छुक प्रत्येक प्राणी, चाहे वह किसी भी अवस्था में क्यों न हो, उपरोक्त रत्नत्रय अर्थात सम्यकदर्शन, ज्ञानचारित्र, रूप धर्म को धारण करने में पूर्ण स्वतन्त्र है। यह धर्म किसी व्यक्ति, जाति, या समाज विशेष की सम्पत्ति न हो कर प्राणी मात्र की सम्पत्ति है और प्रत्येक व्यक्ति उससे अपना व दूसरों का कल्याण कर सकता है। ऐसा होना ही चाहिये । यदि कोई धर्म किन्हीं विशेष व्यक्तियों, जातियों अथवा वर्ग के लोगों तक ही सीमित रहना चाहता है और वह प्राणी मात्र का भला करने अथवा उनको सहारा देने से इन्कार कर देता है, या परस्पर में विद्वष फैला कर संसार में अशान्ति उत्पन्न करता है तो वह धर्म सार्वधर्म, या सत्यधर्म अथवा विश्वधर्म या राष्ट्रधर्म कहलाने का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता। धर्म की उपर्युक्त व्याख्या करके संसार के प्रत्येक प्राणी का भला चाहने और उसे सहारा देकर परमात्मा तक बना देने का दावा रखने के कारण जैनधर्म स्वभावतः राष्ट्रधर्म, और उस से भी बढ़कर सार्वधर्म या विश्वधर्म कहलाने का अधिकारी स्वतः सिद्ध हो जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122