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जैन-धर्म
[३६] अन्यान्य बातों को जाने हुए भी सम्यक्ज्ञानी है। सम्यवज्ञान की प्राप्ति एवं वृद्धि करने के लिए सच्चे शास्त्रों का पढ़ना, सच्चे उपदेशों का सुनना व वीतराग देव के दर्शनादि करना विशेष लाभदायक साधन हैं । इस सम्यक्ज्ञान के बिना धर्म के मार्ग पर चलने की कोशिश करना ऐसे ही है जैसे कि रोग हो जाने पर बिना जानी दवा को पी जाना।
उपरोक्त सम्यक्दर्शन व सम्यक्ज्ञान के साथ जो आत्मा. को पवित्र करने की कोशिश में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह इन पाप कार्यों का तथा क्रोध, मान, माया, लोभादि रूप खाटे भावों का त्याग किया जाता है, एवं अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, संयम, तपश्चरणादि रूप क्रियाओं का पालन किया जाता है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं। इस सम्यक्चारित्र के पालन से ही संसार में शान्ति और सुख की वृद्धि हो सकती है
और आत्मा कर्म कलंक से पवित्र होकर परमात्मा बन सकतीहै। सम्यक्दर्शन और ज्ञान के हो जाने पर सम्यक्चारित्र का पालन न करना ऐसे ही है जैसे कि किसी रोग की ठीक २ औषधि जान लेने और उस पर विश्वास कर लेने के बाद भी उसका सेवन न करना और बदपरहेजी करना । जैसे अच्छी से अच्छी दवा भी बिना खाये रोग को नष्ट करने में असर्थ है वैसे ही यह जान लेने और विश्वास कर लेने पर भी कि मैं आत्मा से परमात्मा बन सकता हूँ और मुझ में भी वही शक्तियां विद्यमान हैं जो परमात्मा में हैं, अपनी आत्मा को पवित्र करने वाले शील,
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