________________
जैन-धर्म
[३४] जड़ है। जिस मनुष्य या प्राणी को आत्मा व उसके पवित्र हो सकने पर विश्वास नहीं है, और जो पांच अजीव तत्वों के सम्मिश्रण से (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के मिलाप से)
आत्मा की उत्पत्ति, व मरने के बाद अपने का मिट्टी में मिल जाना समझता है, वह कुछ भी धर्म कर्म नहीं कर सकता, और करे भी तो किस लिये, जब कि मरने के बाद मिट्टी में मिल जाना है ? किन्तु जो आत्मा को शरीरादि अजीव तत्व से भिन्न अनुभव कर उसके असली स्वरूप को प्राप्त करना चाहते हैं वही आत्मउन्नति के पवित्र कार्यों को रुचि के साथ कर सकते हैं, और अहिंसा, सत्य आदि सदाचरण द्वारा अपने साथ दूसरों को सुखी बनाने का सत्प्रयत्न करते रह सकते हैं।
इस लिए सर्व प्रथम यह आवश्यक है कि हम अपने का समझलें कि हम हैं क्या ? जब तक हमें यह नहीं मालूम, तत्र तक अपने उद्धार या दूसरों की सेवा का पवित्र कार्य करना हमारे लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य रहेगा। हम एक शरीरादि अचेतन वस्तुओं से भिन्न-ज्ञान, दर्शन, सुखादि गुण संयुक्त आत्मा नाम के सचेतन पदार्थ हैं । यह आत्मा न तो कभी नष्ट होता और न कभी उत्पन्न । यह एक अमूर्तिक (आंखो से न दीखने वाला) अखंड (टुकड़े न होने वाला) और अनादि काल से अनन्त काल तक रहने वाला द्रव्य है । आत्माओं की संख्या अनन्तानन्त है, और प्रत्येक का आकार अपने अपने शरीर के बराबर है। इसके प्रदेशों में संकुचित होने (सिकुड़ने) और
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com