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जैन-धर्म
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सुख का प्रशस्त मार्ग
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र
यह पहिले ही बतलाया जा चुका है कि प्रत्येक आत्मा में वही गुण स्वभाव से विद्यमान हैं जो कि परमात्मा या उपरोक्त 'जिन' में । किन्तु परमात्मा में वे गुण विकास को प्राप्त हो चुके हैं, और संसारी आत्माओं के वही गुण राग द्वषादि विकारों के कारण दबे हुए हैं। जो आत्मा अपने में अनन्त ज्ञानादि गुणों की झलक पाकर अपने असली स्वरूप को समझ उसका अनुभव करने लगता है और यह अटल श्रद्धा कर लेता है कि मैं अपनी आत्मा को सत्प्रयत्नों द्वारा कर्म कलंक से पवित्र कर परमात्मा बना सकता हूँ, उसे सम्यक्ष्टि और उसकी उक्त श्रद्धा को सम्यक्दर्शन कहते हैं। यह सम्यक्दर्शन ही धर्म रूपी पेड़ की धर्म तो अपने आत्मा के ही उत्तम और स्वाभाविक गुणों का नाम है। मंदिर, भगवान की मूर्तियां या तीर्थ स्थान तो इन गुणों का विकास करने के साधन हैं, और चूंकि साधनों से ही साध्य की सिद्धि हुआ करती है इसलिये इन धर्म स्थानों की भी यथा योग्य प्रतिष्ठा करते हुए उनसे आत्म-हित साधन करने का प्रयत्न करना चाहिये।
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