Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 35
________________ जैन-धर्म [३०] का कोई अधिकार नहीं है जब कि तुम्हारी ही तरह अपने स्वतन्त्र विचार रखने के लिये वह पूर्ण स्वतन्त्र है। अपने विचारों को उदार, सहिष्णु और पक्षपातहीन बनाने के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति के हित की दृष्टि से यह उसका प्रथम कर्तव्य है कि वह अपनी नीति सत्य को ग्रहण कर असत्य को त्यागने को बनावे । जो सत्य हो वही अपना है न कि जो अपना माना हुआ है वही सत्य । इस दृष्टिकोण के साथ ही वस्तु के प्रत्येक गुण को जानने की इच्छा रखने वाला, और एक बात या गुण को पकड़ कर शेष की ओर से आंखें बन्द न करने वाला मनुष्य ही वास्तविक विचारक और वस्तु तत्व का ज्ञाता व दृष्टा बन सकता है, तथा तभी संसार के मतभेद सम्बन्धी झगड़ों का सरलता के साथ अन्त हो सकता है। इस प्रकार जैनधर्म दुनियां के प्रत्येक प्राणी को मतभेद रहते हुए भी परस्पर में मित्रता के साथ रहने, तथा फूट, कलह विसंवाद व विरोध को दूर कर-समता, स्वतंत्रता,निर्भयता और वात्सल्य का पूर्ण समर्थन करता हुआ जोरों से घोषणा करता है कि मतभेद मात्र से किसी से घृणा और द्वेष करना कदापि उचित और धर्म नहीं हो सकता। धर्म का उद्देश्य और स्वरूप तो विषमता तथा द्वष का अन्त कर संसार में समता और प्रेम को स्थापित करना है। अतः यदि कोई सम्प्रदाय या धर्म प्राणियों में परस्पर द्वेष, विषमता, हिंसा, कलह या फूट का बीज बोता है तो वह धर्म नहीं अधर्म है, और उसका प्रचारक धर्मात्मा नहीं, पापी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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