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जैन-धर्म
[२८] है, और उस एक ही मनुष्य में भ्रातृत्व, पितृत्व (भाईपन या पितापन ) आदि सम्बन्धों के होने में कोई बाधा नहीं आती बात है भी ऐसी ही; किन्तु जो मनुष्य अपने पिता को अपना पिता होने से उसे दूसरों का भी पिता समझता फिरे, और उसके भाई कहने या बहनोई होने पर बहनोई कहने से लड़ता झगड़ता फिरे तो यह क्या मृर्खता, हटग्राहिता और पक्षपात पूर्ण बात न होगी ? इस लिये जैन धर्म यह बतलाता है कि भाइयोः ! यदि तुम सचमुच ही शान्ति के इच्छुक हो तो दुनियां के प्रत्येक प्राणी को अपना मित्र समझते हुए. उससे उदारता का व्यवहार करो और मतभेद होने मात्र से किसी को अपना दुश्मन समझ कर उससे द्वेष या झगड़ा मत करो; क्योंकि विभिन्न प्राणियों के नाना स्वभाव और बिचित्र दृष्टिकोणों के होने के कारण मतभेद होना स्वाभाविक है । अतः स्याद्राद मय सुनीति को अपना कर प्रत्येक बात या वस्तु के स्वरूप पर अपने दृष्टिकोण को निष्पक्ष और उदार बना कर हर पहलू से विचार करो। इसके अतिरिक्त संसार में सैकड़ों संप्रदाय अपने अपने ऋषि-महर्षियों की समझ व उनके ज्ञान और अनुभव के द्वारा स्थापित किये गये हैं। उन्हें देख कर मुँझलाओ या घृणा मत करो और न उनके अनुयायियों की पूजा पाठ आदि धार्मिक क्रियाओं में ही विन्न डालो, क्योंकि जैसा जिसने समझा है वह उसके अनुसार अपना धार्मिक कर्त्तव्य करे तो इसमें तुम्हारी क्या हानि है ? उसे वैसा करने से रोकने के लिये जोर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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