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जैन-धर्म
[२२] है कि प्रत्येक आत्मा का स्वभाव आनन्दमय है। इसलिए प्रत्येक
आत्मा सुख चाहती और दुःखों से डरती है, एवं अपने को सुखी बनाने के लिए ही वह भ्रमवश नाना प्रकार के भले बुरे कार्यों को करती रहतो है; किन्तु सुख पाने का सच्चा मार्ग मालूम न होने से वह वास्तविक सुख तो पा हो नहीं पातो; वरन संसार में भी शांति से नहीं जीने पाती।
सम्पूर्ण प्राणियों में एकसा आत्मा मौजूद रहने और उनके सुख पाने के इच्छुक होने से समस्त आत्माएँ एक ही मर्ज़ की मरीज़ हैं तथा परस्पर में एक दूसरे से भाई भाई की तरह प्यार व सहानुभूति पाने की हक़दार हैं। ऊपर यह बताया जा चुका है कि आनन्द या सुख आत्मा का ही स्वभाव या गुण है। वह सुख संसारी आत्माएँ अपनी ही काली करतूतों के द्वारा नष्ट भ्रष्ट करके दूसरी चीजों में सुख ढूडती फिरती हैं। इसलिये जैनधर्म कहता है कि ए प्राणियों ! जबकि सुख अपनी आत्मा का ही गुण है, और वह स्वतंत्रतापूर्वक आत्मा में ही प्राप्त हो सकता है, तो फिर सांसारिक वस्तुओं से सुखी बनने और उन्हें प्राप्त करने के लिये आपस में कुत्तों की भांति स्वार्थान्ध होकर लड़ने भगड़ने, और पापादि नीचतापूर्ण कार्यों के करने की क्यों मूर्खता करते हो ?
तुम्हें यह जान लेना चाहिये कि संसार में जीव अनंतानंत हैं और उनकी तृष्णा उनकी संख्या से भी कई गुणी एक २ प्राणी में विद्यमान रहा करती है। इधर संसार में विषय भोगों की
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