Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 29
________________ जैन-धर्म [१४] स्वार्थान्ध होकर दूसरों पर जुल्म करते हुए खाने, पीने, मौज उड़ाने को ही अपने जीवन का आदर्श बना लेगा, तथा आत्मा परमात्मा आदि तत्वों पर कुछ लक्ष्य न देगा; जैनधर्म की दृष्टि में वही नास्तिक है, और अपने साथ दूसरों के सुख व शांति को भी कुचलने का पूरा २ ज़िम्मेदार है। इसलिये जैनधर्म चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक, उपर्युक्त बातों को सर्व प्रथम ठंडे दिल से विचारे और उन पर अमल करे, ताकि संसार के सम्पूर्ण प्राणी शांति के साथ जीवन व्यतीत कर सुखी बन सके। इस विश्व प्रेम से ओत प्रोत सुखमय संदेश की घोषणा करने के अनन्तर ही मनुष्यों को सैद्धान्तिक भिन्नता एवं मतभेदों के कारण होने वाले आपसी विद्रोपों को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने, अनेकता में एकता और समता स्थापित करने, तथा हट व पक्षपातपूर्ण नीति का अन्त कर विचारों में उदारता और सहिष्णुता को पैदा करने, एवं मनुष्यों के एकांगिक वस्तु विज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाने के लिये जैनधर्म ''स्याद्वाद" का चमत्कारपूर्ण आविष्कार कर दुनियां को दूसरी बहुमूल्य शिक्षा भेंट करता है। स्याद्वाद का अर्थ अपनी दृष्टि, विचार और कथन को संकुचित, हठ व पक्षपातपूर्ण न बनाकर उदार, निष्पक्ष एवं विशाल बनाना है। प्रायः देखा जाता है कि एक सम्प्रदाय दूसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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