Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 26
________________ जैन-धर्म [२१] का स्वामित्व प्राप्त किया था, उनमें से एक को भी स्थायित्व प्राप्त न हो सका, और उन्हें अन्त समय हाथ मल २ कर पश्चाताप करते हुए ही खाली हाथ जाना पड़ा । अतः मदमत्त बनकर यह भूल न जाओ कि इन दीन हीन दीखने वाले प्राणियों में भी तुम्हारी ही तरह आत्मा मौजूद है, और प्रत्येक तुम जैसी ही सुख दुःख अनुभव करनेकी शक्ति रखता है। इसलिए तुम सब प्राणियों का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि एक दूसरे को अपने ही समान समझते हुए आपस में प्रेम से मिलकर रहो, और किसी भी कार्य को करते समय इस बात का ध्यान रक्खो कि उसके द्वारा किसी को कष्ट न होने पावे; किन्तु जहां तक हो उससे दूसरों का हित ही हो। वास्तविक दृष्टि से संसार का प्रत्येक प्राणी परमात्मस्वरूप है। परमात्मा उसे कहते हैं जो राग द्वष रहित, सर्वज्ञ, पूर्ण सुखी, अनन्त शक्तिसम्पन्न, जन्म मरण से रहित, निर्दोष और निष्कलंक हो। ऐसे परमात्मा बनने की शक्ति सम्पूर्ण संसारी भव्य आत्माओं में विद्यमान हैं, और वही आत्मा का असली स्वरूप है। भेद यह है कि संसारो आत्माएँ राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादि विकारों और पापवासनाओं में फंसी हुई हैं, व जन्म मरणादि के कष्टों को भोग रही हैं; किन्तु परमात्मा इन सब झंझटों से मुक्त है। सांसारिक आत्माएँ चूंकि नाना प्रकार के पाप पुण्यादि कर्मों को करती रहती हैं, अतः उनके फलस्वरूप उनको अवस्थाएँ भी विचित्र होती रहती हैं; किन्तु यह निश्चित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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