Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 24
________________ जैन-धर्म [१६] करने से तथा विषय वासनाओं में लिप्त होते जाने से तुम्हें रञ्च मात्र भी सुख नहीं मिल सकता । यदि ऐसा करने से सुख मिलता तो आज तक किसी न किसी मनुष्य को अवश्य मिल जाता, क्योंकि ऐसे कौन से पाप और अत्याचार हैं जो मनुष्य द्वारा नहीं किये गये और नहीं किये जा रहे ? इतिहास के पन्नों को पलट कर देखो और अपनी दृष्टि दुनियां में होने वाले वर्तमान दुष्कर्मों पर भी दौड़ाओ, फिर तुम स्वयं ही जान जाओगे कि सचमुच प्रत्येक बड़े से बड़ा पाप भी करने से शेष नहीं रहा। तो भी उससे पाप करने वाले को सुख न मिल सका; प्रत्युत् पायो और अत्याचारी मनुष्य को आज नहीं तो कल और कल नहीं तो फिर, एक न एक दिन उनका दुष्परिणाम ही भोगना पड़ा और अत्याचारों को करते हुए दूसरों का कष्ट पहुँचा सो अलग। इस लिये यदि तुम सुखी बनना चाहते हो और दूसरों को सुखी बनाते हुए संसार में शान्ति स्थापित करना चाहते हो तो सर्व प्रथम विश्वप्रेम-- के पवित्र सूत्र में बँध जाओ, और अपने से भिन्न किसी भी सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, या देश के मनुष्यों से घृणा व द्वष मत करो तथा उनसे समानता व प्रेम का मित्रतापूर्ण व्यवहार करो, इतना ही नहीं; किन्तु पशु पक्षियों एवं कीड़े मकोड़ों को भी अपनी ही तरह जानदार समझते हुए बेरहमी से कभी मत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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