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ख) वचनयोग - वाणी प्रयोग को लेकर जीवों के अनेक प्रकार हैं। पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर जीवों को वाणी प्राप्त नहीं होती है । बिल्कुल भाषा पर्याप्ति से रहित हैं । द्विइंद्रिय वाले
as को भाषा के लिए जिह्वा (रसना) जो मिली है, किन्तु उनकी चेतना बहुत ही अविकसित है। वे जीव मूक रहते हैं। तेइन्द्रिय जीव भी रसना का उपयोग पदार्थ को ग्रहण करने के अलावा कुछ भी उपयोग नहीं कर सकते हैं । चार इन्द्रिय वाले जीव भाषा का प्रयोग करते हैं लेकिन उनकी भाषा अव्यक्त है। सभी पंचेन्द्रिय जीवों को वाणी प्राप्त हुई है, किन्तु तिर्यंच . पंचेन्द्रिय जीवों की भाषा अव्यक्त है, स्पष्ट नहीं है, व्यवस्थित नहीं है इस प्रकार वचनकृत इन विभिन्नताओं में कर्म को ही कारण समझना चाहिए।
ग) कायायोग - किसी को छोटा या बडा, रोगी या निरोगी, दुर्बल या बलवान, सुडौल या Waste, लंबा या ठिंगना, कुरूप या सुरूप शरीर मिलता है या किसी को कुत्ता बिल्ली आदि प्राणियों का शरीर मिलता है, इस प्रकार जीवों के शरीरों में विसदृशता दिखाई देती है, इसके लिए पूर्वकृत कर्म को कारण मानना ही पडेगा, अन्यथा अमुक आत्मा को अमुक प्रकार का शरीर मिलता है, ऐसी व्यवस्था का समाधान कर्म के अतिरिक्त नहीं हो सकता । १४१ जैन दृष्टि में कर्म १४२ और न्यायदर्शन में १४३ इस तथ्य को स्वीकार किया है।
५) वेद को लेकर जीवों में विभिन्नता का कारण : कर्म
सांसारिक जीवों में कोई स्त्री-वेदी है, कोई पुरुष - वेदी है और कोई नपुंसक वेदी हैं । एकेन्द्रिय जीव नपुंसक वेदी माने जाते हैं। शेष जीवों में तीनों ही प्रकार के वेद पाये जाते हैं । इस प्रकार सांसारिक जीवों की कामवासना में भी बहुत तरतमता है, किसी की कामवासना अत्यंत मंद किसी की तीव्र और तीव्रतम भी होती है, इस तरतमता का कारण कर्म के अतिरिक्त क्या हो सकता है?
६) कषाय को लेकर जीवों में तारतम्य का कारण : कर्म
कषाय - प्रत्येक जीवात्मा में चार प्रकार के कषाय होते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों की मात्रा में अंतर पाया जाता है । वह भी अकारण नहीं है । किसी में चारों कषाय मंद होते हैं किसी में अधिक मात्रा में होते हैं, उसका मूल कारण कर्म है । १४४ धवला १४५ और राजवार्तिक१४६ में यही बात बताई है।
कर्म ही जीवों के ज्ञान, संज्ञा, संज्ञित्व असंज्ञित्व में अंतर
७) ज्ञान - जीवों के ज्ञान में भी पर्याप्त अंतर है। एक को परिपूर्ण ज्ञान है, किसी को अवधिज्ञान है, किसी को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान है, अथवा अनंत जीवों को सम्यक्ज्ञान भी नहीं है, इस प्रकार विभिन्नता और तारतम्यता देखी जाती है। इन सबका कारण दार्शनिक मनोवैज्ञानिक