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वचन, काया का निग्रह करना पडेगा।
संवर का संवरण, आस्रव को रोकना तथा कर्मों को न आने देना संवर है। आत्मप्रदेश में आगमन करने वाले कर्मों को रोकना ही संवर है। आस्रव में आत्मा के पतन की अवस्था दिखाई गई है और संवर में आत्मा के उत्थान की अवस्था दिखाई गई है। आस्रव में दोष उत्पादक कारण बताये हैं और संवर में उन कारणों को निर्मूलन करने का उपाय बताया है। संवर में आत्म निग्रह होता है।
आगे इस प्रकरण में सम्यक्त्व का प्रकाश मोक्ष, सम्यक्त्व के लक्षण, सम्यक्त्व के भेद, उसके पाँच अतिचार, विरती, अप्रमाद, अकषाय, अयोगादि आस्रव और संवर में अंतर, निरास्त्रवी होने का उपाय आदि विषयों का निरूपण है।
सम्यक्त्व मोक्ष प्राप्ति का बीज है। सम्यक्त्व याने जिनवचन पर श्रद्धा रखना है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र को मोक्ष का मार्ग कहा है। सम्यक्त्व प्राप्ति से मोक्ष प्राप्ति की गॅरंटी तथा भव संख्या निश्चित हो जाती है, सम्यक्त्व प्राप्ति से मोक्ष यात्रा प्रारंभ होती है। सम्यक्त्व के बिना कोई भी व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान आदि मोक्ष का कारण नहीं हो सकता। सम्यक्-संवर के लिए स्थिरता और सुरक्षा के लिए पाँच अंगों का पालन करना अनिवार्य है। वह पाँच अंग हैं- प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्था।
भौतिकता की चकाचौंध में वर्तमान युग का मानव सुविधावादी होता जा रहा है। ऐसे लोग अज्ञान, अंधविश्वास, भ्रांति, मिथ्यादृष्टि, स्वच्छंदाचार का शिकार हो रहे हैं, फिर विरती (प्रत्याख्यान) आदि से रहित जीवन स्वेच्छाचारी निरंकुश हो जाता है। स्थानांगसूत्र में ऐसा जीवन इहलोक, परलोक और आगामी भवों में गर्हित, निदिंत कहा गया है। जीवन को विरती युक्त बनाने पर ही संवर, निर्जरा उपार्जित होती है। इसके विपरीत असयंत अविरति जीव भले ही हर समय पापकर्म में प्रवृत्त न हो तो भी त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम आदि अंगीकार न करने से पाप प्रवृत्ति का बंध होता है, अत: प्रत्येक मुमुक्षु साधक के लिए सम्यक्त्वपूर्वक विरती संवर की साधना अनिवार्य है। विरती संवर का यही सक्रिय उपाय है।
अप्रमाद कर्म को रोकनेवाला सजग प्रहरी है। इसके बिना साधक की साधना दूषित हो जाती है, इसलिए भगवान महावीर ने गौतम गणधर जैसे उच्च कोटि के साधक को भी उपदेश दिया हे गौतम ! समयं गोयम मा पमायए' समय मात्र का प्रमाद मत करो। अप्रमादी साधक सदा जागृत रहकर धर्म क्रिया करता है और निर्जरा भी करता है। स्थानांगसूत्र में भी साधक को अप्रमत्त रहकर शुभयोग संवर के लिए उपयोग रखने को कहा है।